Thursday, October 29, 2009

दूर के ढोल सुहावने


                                                


                                        दूर के ढोल सुहावने

एक कहावत है की 'दूर के ढोल सुहावने लगते है'  , ये बात काफी हद तक मुझे तो सही लगती है , इसका कारण मेरा  चंडीगढ़ का दौरा , अभी मुझे दस दिनों के लिए चंडीगढ़ आने का मोका मिला , में बड़ा खुश हुआ  की बहुत बढ़िया शहर है , चोडी चोडी सड़के हरा भरा शहर खुबसूरत तरीके से बने हुए मकान  और फिर में दिल्ली के बारे में सोचने लगा चलो कुछ दिन यहाँ से तो पीछा छूटेगा और शांत वातावरण में जाने का मोका मिलेगा , यहाँ के शोर शराबे से पीछा तो छुटेगा , सामने दुकान वाला सब्जी वाला इनकी जोर  जोर से आती आवाजे ,लेकिन चंडीगढ़ आने के बाद ये नशा मेरा दो दिनों में ही टूट गया , अगर बाज़ार की बात करे तो इतनी दूर की जाने का मन भी ना करे , कुछ खाने को मन करे तो मन को मसोस कर रह जाओ , अगर पड़ोस की बात करे तो इतने बड़े बड़े मकान की पडोसी एक दुसरे को ना  जाने .अगर ऑटो की बात करे तो काफी देर तक तो नजर ही नहीं आता अगर मिल भी जाता है तो रूपये भी ज्यादा मांगता है . फिर मुझे आपनी दिल्ली की याद आने लगी की मेरी दिल्ली जयादा बढ़िया है और उससे जयादा कुछ भी नहीं है सब कुछ सामने ही मिल जाता है , फिर  बस अब अपने ही ढोल सुहावने लगने लगे !

नहीं



                                                               नहीं
नहीं , नहीं, नहीं  एकदम   नहीं  ये शब्द सुनकर में कई बार परेशान हुआ , कई बार ठेस भी लगी , कई बार बगावत करने का मन भी किया , लेकिन कई तरह की मज़बूरी सामने आ  गई . जब  बच्चा था तब  कुछ अच्छा लगा और माता पिता से मांगा  तब उन्होंने कहा 'नहीं'  तब बहुत गुस्सा आया  , दोस्तों ने कई बार कहा नहीं , पत्नी ने भी कहा नहीं जब नोकरी लगी और छुट्टी मांगी तो बॉस ने कहा नहीं ,जब काम  भी खूब किया और तनख्वा बढ़ाने की बात कही तो बॉस ने कहा  नहीं,   हम लोग हर समय हां सुनने की चाहत रखते है लेकिन 'नहीं' कभी भी आपका पीछा नहीं  छोड़ता  ..